Friday, January 16, 2015



 ये वही जगह है जहाँ दूसरे गोले का इंसान 'पीके' रहता था. बोले तो उग्रसेन की बावली. जिसके बारे में बचपन में हमें यही बताया गया था कि इसे महाभारत कालीन सूर्यवंशी सम्राट महाराजा अग्रसेन द्वारा बनवाया गया था. जिसका जिर्णोधार अग्रवाल समाज द्वारा किया गया था. परन्तु अब लगाये गये शिलालेख को पढ़ने पर पता चला कि इसे अग्रवाल समाज के पूर्वज राजा उग्रसेन द्वारा बनवाया गया था. ये मंडी हाउस से बारखम्बा रोड की तरफ़ जाते समय लेफ़्ट साइड की दूसरी गली हेली रोड की तरफ़ मुडने के बाद कुछ आगे बढ़ने पर राइट साइड की एक पतली सी गली हेली लेन पर बिल्कुल पास ही स्थित है. यह बावली चारो ओर मकानों से घिरी है जिससे किसी बाहरी व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि यहां कोई बावली है. कह सकते हैं यदि पीके यहाँ नही आता तो यह बावली पहले की तरह सुनसान सी पड़ी रहती. परन्तु पीके के आगमन के पश्चात् यह 'बावली' बालक बालिकाओं से हरी भरी हो गयी है.
हमारा बचपन इसी बावली के आस-पास ही गुजरा है. तब यहाँ एक बिल्ली के अलावा इंसान तो क्या कोई अन्य जानवर भी नही दिखता था. हमारा संयुक्त परिवार था जिसमे 10 बच्चे थे. बस हम लोग ही कभी-कभी वहाँ धमाचौकड़ी मचाते हुये पहुँच जाते थे और जब मम्मी लोगों को पता चलता तो ये बता कर डराने की कोशिश करती थीं कि वहाँ भूत रहते हैं. वहाँ मत जाया करो. लेकिन हम बच्चों का खुराफ़ाती दिमाग भूत से मिलने कभी कभार वहाँ पहुँच ही जाता था. तब वहाँ कोई चौकीदार या रख रखाव करने वाला व्यक्ति नही था तो कोई रोक टोक भी नही थी. साईड की पतली जगह से होते हुये किनारे की सीढ़ियों से बावली की छत पर चढ़ जाते थे. जहाँ एक कुँआ हुआ करता था. जो 'अंधा कुँआ' के नाम से प्रसिद्ध था. जिसके बारे में किवंदती प्रसिद्ध थी कि जो इसमे झांकता है. कुआं उसे अपनी ओर खींच लेता है. इसलिये हम लोगों ने उसमे कभी झांकने की कोशिश नही की. जिसे मुश्किल से 10 साल पहले लोहे के सरिये वाले जाल से ढ़ंक दिया गया था.
कल जाने पर पता चला अब इन सीढ़ियों से आगे नही जाया जा सकता तो कुंआ क्या खाक दिखने को मिलेगा. साइड की तरफ़ जाने की कोशिश की (जहाँ निर्माण कार्य का समान दिख रहा है) तो वहाँ जाने से यह कहकर रोक दिया गया कि यहाँ मस्जिद है और यहाँ निर्माण कार्य चल रहा है. मैने पूछा - कहाँ है मस्जिद? गार्ड बोला- तुम्हें नही दिखेगा. मैने मन ही मन सोचा हो सकता है कुछ विशेष किस्म के लोगों को दिखता होगा. मुझे तो यहाँ बचपन में भी कोई मस्जिद नही दिखी थी और यही वो जगह है जहाँ हम जूते पहन कर उच्छते कूदते थे.
जाने से पहले सोचा था चलो बचपन की कुछ यादें ताजा हो जायेंगी पर जाकर मन खिन्न हो गया कि कुछ विशेष किस्म के लोगों को हर जगह टंगड़ी करने की आदत होती है. अरे.. नाम से ही साफ़ जाहिर होता है कि बावली हिन्दु राजा द्वारा बनवाई गयी है. बाहर लगे शिलालेख में खुदा है कि इसे अग्रवाल समाज के राजा द्वारा बनवाया गया है तो इसमे मस्जिद कहाँ से आ गयी?? शिलालेख में साफ़ लिखा है कि यह व्हेल मछली के समान है तो यह मस्जिद कैसे हो गयी?? हद होती है हर जगह मस्जिद घुसेडने की......