आज एक मित्र से आत्महत्या के बारे में चर्चा करते हुये विश्वनाथ प्रताप सिंह का शासन काल याद आ गया कि किस तरह मंडल आयोग की सिपारिश लागू करने के कारण जिसमे २७% आरक्षण लागू कर दिया गया था के विरोध में हिन्दु नौजवानों ने महान कायरता और नपुसंकता का प्रदर्शन करते हुये खुद को आग में जलाना (आत्मदाह) शुरु कर दिया था. नौजवानों मे आत्मदाह कर अपने को जिन्दा जला ड़ालने की होड़ मची हुई थी. यह सब करके हिन्दु नौजवानों ने इतिहास को दोहरा दिया कि इनसे बड़ा कायर नपुसंक इस दुनिया में कोई माई का लाल नही है. यह कोई पहला मौका नही था कि जब हिन्दुओं ने मुकाबला करने के स्थान पर आत्महत्या की हो.
सन् 1000 में जब हिन्दु राजा जयपाल महमूद गजनवी से परास्त हुआ तो पुनः महमूद से बदला लेने के स्थान पर वह जिन्दा ही चिता में जलकर मर गया. सन् 1003 में भेरा के राय को जब महमूद गजनवी ने हराया तो पुनः मुकाबला करके बदला लेने के स्थान पर वह भी आत्महत्या करके मर गया. सन् 1527 में बाबर ने जब चन्देरी पर हमला किया तो चन्देरी के राजा मोदिनीराय तथा उसके अन्य सहयोगी राजपूतों ने अपनी स्त्रियों और बच्चों को जिन्दा जला दिया और खुद निहत्थे तथा नंगे होकर किले के बाहर दौड़ पड़े. जिससे वह रणक्षेत्र में मरकर स्वर्ग जा सकें. वीरता से युद्ध करने के स्थान पर, दुश्मन के हाथों केवल मर कर स्वर्ग जाने की इच्छा रखने वाले उन राजपूतों के सिर धड़ से अलग करवा दिये. काटे गये सिरों को चन्देरी की पहाड़ी पर एक के ऊपर एक रखकर इन सिरों का विशाल गुम्बद बनवाया. इस तरह अपनी विजय का जश्न मनाकर, उनको सड़ने और चील कौवों के खाने के लिये छोड़कर दिल्ली वापस लौट गया.
मौहम्मद शहाबुद्दीन गौरी ने सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान को हराकर बाद में उसकी हत्या कर दी. पृथ्वीराज की मौत का बदला लेने के लिये पृथ्वीराज के छोटे भाई हरिराज ने सेना इकठ्ठी की और सन् 1195 में दिल्ली में हमला कर दिया. मोहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस सेना को मार भगाया तथा उसका पीछा करते हुये अजमेर आ गया और अजमेर के किले को घेर लिया. इस किले के अन्दर बैठे हरिराज ने कुतुबुद्दीन का मुकाबला करने के स्थान पर आग लगाकर आत्महत्या कर ली.
जिसे इन मूर्ख राजाओं ने आत्मसम्मान की मौत का रास्ता माना परन्तु यह गीता के सिद्धांतो के एकदम विपरीत था क्योकि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता मे स्पष्ट कहा है कि अत्याचारियों का मुकाबला किये बिना, उनके द्वारा मर जाना, स्वर्ग का रास्ता ना होकर, नरक का रास्ता है. स्वर्ग तो वीरता से मुकाबला करने वाले वीरों के लिये है.
अन्याय के विरुद्ध इन अत्याचारियों से युद्ध करते हुये तू यदि मारा जायेगा, तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा अथवा विजयी होकर इस पृथ्वी का भोग करने के उपरान्त स्वर्ग को प्राप्त होगा.
किन्तु यदि तू इस धर्म युद्ध को नही करेगा तो अपने धर्म और यश को खोकर पाप को प्राप्त होगा. इसलिये तू उठ ! शत्रुओं का विनाश कर, यश को प्राप्त कर धन-धान्य से पूर्ण राज्य का भोग कर.
यह अच्छी तरह समझ लो की ड़रपोक और कायरों का भगवान भी साथ नही देते. भगवान भी उन्हीं का ही साथ देते हैं जो अपनी रक्षा के लिये स्वयं आगे बढ़ते हैं.
इसलिये भूल जाओं अव्यवहारिक अहिंसा को और मिटा दो अतिसहिष्णुता रुपी नपुसंकता को समझ लो कि कोई भी लड़ाई मर कर नही जीती जा सकती जी कर ही लड़ाई जीती जा सकती है क्योकि मरने के बाद तो लड़ाई स्वतः ही समाप्त हो जायेगी. इसलिये याद रखो-
यह गाल पिटे वह गाल बढ़ाओ, यह तो आर्यों की नीती नही.
अन्यायी से प्रेम अहिंसा, यह तो गीता की नीति नही.
हे राम बचाओ जो कहता है, वह कायर हे, खुद अपना हत्यारा है.
जो करे वीरता अति साहस, वही राम का प्यारा है.
निरंजन जी बहुत हि अच्छी शुरुआत|
ReplyDeleteआशा है आगे भी इसी तरह ज्वलंत मुद्दों को आप इस मंच और सभी मंचों पर उठाती रहेंगी ताकि सनातन परम्परा से समृद्ध भारत के युवाओं में सनातन संस्कार और समृद्ध हो सके| और युद्धों, द्वंदों से भागने कि बजाय उनका मुकाबला कर सकें|
धन्यवाद चन्दन जी....
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