Wednesday, March 14, 2012

बदल गई है श्रीमद्भागवत गीता नीति...

आजकल हमारे कुछ धर्माचार्यों ने धर्म की परिभाषा ही बदल दी है क्योकि ये सर्वधर्म समभाव, वसुधैवकुटुम्बकम, क्षमा वीरस्य भूषणम् और अव्यवहारिक अहिंसा तथा अतिसहिष्णुता जैसे सतयुगी उपदेश देते हैं. बड़ी बेशर्मी के साथ सर्वे भवन्तु सुखिनः हमारा नारा है का उपदेश देते हैं. ऐसे पाखंड़ी लोग झूठे लोगों द्वारा लिखे गये साहित्य व अव्यवहारिक कहानियां सुनाकर हिन्दुओं को भ्रमित करते हैं.
बड़े ही आत्मविश्वास के साथ बोलते हैं कि हिन्दु धर्म की रक्षा के लिये भगवान अवतार लेंगे. फ़िर इन्हे भगवान के अवतारों की कहानियां सुनाकर अपनी बात को सत्य सिद्ध करते हैं.
इन महानुभावों से प्रश्न है कि इन्हें केवल भगवान के अवतार ही क्यों नजर आते हैं? ये धर्मावलम्बी क्यों नही समझाते की भगवान ने केवल राक्षसों का संहार करने के लिये ही नही अपितु उन्होने समाज को यह संदेश देने के लिये कि - उनसे प्रेरणा पाकर लोग स्वयं उठ खड़े होना, अपना धर्म समझे और देवी-देवताओं द्वारा धारण किये गये हथियारों से प्रेरणा पाकर लोग खुद शक्तिशाली बने. लेकिन कुछ कायरों ने इसका अर्थ यह दे दिया कि जब भी अत्याचारी अत्याचार करेंगे तो तुम्हारी रक्षा के लिये भगवान अवतार लेंगे.
इसीलिये कठिनाईयों और खतरों का सामना करने के स्थान पर हिन्दु चमत्कारों की प्रतिक्षा में देवी-देवताओं के सहारे बैठे रहते हैं परन्तु हिन्दुओं को समझ लेना चाहिये की कलियुग में अवतार नही होते. अपनी तथा अपनी सन्तानों के भविष्य और अपने धर्म की रक्षा स्वयं हिन्दुओं को ही करनी होगी. भगवान उसी की रक्षा करते हैं, जो खुद अपनी रक्षा का पूरा प्रयास करते हैं क्यों तुम्हे भगवान के अवतार ही नजर आते हैं हर अवतार में धारण किये गये उनके हथियार क्यों नही दिखते. बस जिससे कायरता छिप सके वही चीज़ दिखती है शूरवीरों की बातें नही दिखती. गीता का सिर्फ़ यही संदेश ही जीवन मे उतारा कि हिन्दु धर्म की रक्षा के लिये भगवान अवतार लेंगे लेकिन यह क्यों दिखा कि भगवान ने स्वयं बोला है कि केवल ईश्वर अथवा भाग्य के सहारे बैठ कर अकर्मण्यता मतकर. अत्याचारियों से मुकाबला किये बिना तू अत्याचार से बच नही सकता. इसलिये तू सदैव ईश्वर का स्मरण करते हुये युद्ध भी कर. (कर्म कर).
लेकिन हम हिन्दुओं ने भगवान के इस आदेश को नही माना और अत्याचारों का मुकाबला करने के स्थान पर अत्याचारों को सहना ही अपना धर्म बना लिया. इसी अव्यवहारिक अहिंसा और अतिसहनशीलता या अतिसहिष्णुता को हमारी कमजोरी व डरपोकपन समझकर हम पर और अत्याचार किये गये. गीता मे भगवान ऐसी अहिंसा व सहिष्णुता को नपुसंकता कहकर उससे दूर रहने को कहते हैं. सहिष्णुता और अहिंसा का अर्थ यह नही कि अपनी गरदने कटवाने की रुपरेखा खुद तैयार की जाये और प्रेम पूर्वक गुलाम बन जाया जाये तथा इस अहिंसा और सहिष्णुता के नाम पर अत्याचारियों को अपने ऊपर अत्याचार करने की खुली छूट दे दी जाये. अत्याचारों और अत्याचारियों की अनदेखी करना हिंसा को बढ़ावा देना है, जो अहिंसा न होकर सबसे बड़ी हिंसा है, पाप है.
इसलिये भूल जाओ ऐसी अव्यवहारिक अहिंसा को मिटा दो अतिसहिष्णुता रुपी नपुसंकता को क्योकि आत्मरक्षा और आत्मसम्मान ही सबसे बड़ा धर्म है. यह पृथ्वी कर्म-भूमि है. यहां रहने वाले मनुष्य को अंतिम समय तक धर्म और समाज के प्रति संवेदनशील और कर्मशील रहना चाहिया. यही श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण का आदेश है. यही ऋषि-मुनियों की शिक्षा है.
यह गाल पिटे वह गाल बढ़ाओ, यह तो आर्यो की नीति नही
अन्यायी से प्रेम अहिंसा यह तो गीता की निति नही
हे राम बचाओ जो कहता है, वह कायर है खुद अपना हत्यारा है.
जो करे वीरता अति साहस वही राम का प्यारा है.

2 comments:

  1. दुनिया का सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक झूठ - गीता में कृष्ण “कर्म करने और फल की इच्छा न रखने ” का उपदेश देते हैं । जरा दिमाग लगाइए क्या दुनिया में कोई भी काम बिना फल की इच्छा के होता है / हो सकता है ? हम जो भी काम करते हैं, काम शुरू होने से पहले ही नतीजे का ख्याल कर लेते हैं । ये मनुष्य का स्वभाव है । बड़ी स्वाभाविक बात है - काम बाद में, काम के बदले फल की इच्छा पहले .....

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